पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३६५

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देन लगी आसीस फेरि यै होय मुदित मन।
यथा एक बदरी नारायन सुकवि प्रेमघन॥
ईस कृपा सो और एक जुबिली तुव आवै।
फेरि भारती प्रजा ऐस ही मोद मनावै॥
धन्य धन्य वह दिवस, जु पूजी आस हमारी।
भई दूसरी हीरक जु बिली आनन्दवारी॥
परयो अकाल कराल इतै जब महा भयंकर।
जस नहि देख्यो, सुन्यो कबहुं कोऊ भारतीय नर॥
कहै अन्न की कौन कथा? जब कन्द मूल फल।
फूल साग अरु पात भयो दुरलभ इनका भल॥
जौ न दया करि देवि दान दरियाव बहाती।
कोटिन प्रजा हिन्द की अन्न बिना मर जाती॥
पर उपकार बिचार प्रजा पालन हित केवल।
नहि भूलेहु जामै कहु लखियत स्वारथ को छल॥
नहि तौ पेट चपेट परी परजा भारत की।
किती न बनि कृस्तान दसा खोती आरत की॥

हरिगीती


ऐसो नृपति जौ मिलै धरम धुरीन उपकारी महा।
अन्याय पूरित देस को दुख दुसह सो जो भरि रहा॥
बाके निवासी नर जु तापै प्रान धन वारन चहा।
तौ लखहु नेक विचारि यामै बात अचरज की कहा॥

दोहा


सबै गुनन के पुञ्ज नर भरे सकल जग माँहिं।
राज भक्त भारत सरिस और ठौर कहुँ नाहि॥
याको अधिक बखानि अति आवश्यक न लखाय।
निरखि गये जिहि आप निज नैन ही इत आय॥