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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३६८

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दोहा


तासों जाके हित रह्यो, बहु दिन सों लौं लाय।
आजु पाय दिन सो हरखि, फूलो अंग न समाय॥
करत प्रजा उपकार नृप, राज मुकुट सिर धारि।
तुम पीछे राजा भये, प्रथम दया विस्तारि॥
जो जस ससि पर कास तुव, रह्यो दिगन्तन छाय।
जोहत जिहि जग राजकुल, कमल गए सकुचाय॥
गुन अनुरूपहि गुन दियो, ईस अधिक अधिकार।
सुनि गुनि सुनि गुनि पाय जिहि चकित भूप संसार॥

रोला छन्द


साँचे नृप भारत के रहे सकल नृप ऊपर।
फिरत दुहाई सदा रही इनही की भूपर॥
सदा सत्रु सों हीन, अभय, सुरपति छबि छाजत।
पालि प्रजा भारत के राजा रहे बिराजत॥
पै कछु कही न जाय, दिनन के फेर फिरे सब।
दुरभागिन सों इत फैले फल फूट बैर जब॥
भयो भूमि भारत मैं महा भयंकर भारत॥
भये बीरबर सकल सुभट एकहि संग गारत॥
मरे विबुध, नरनाह, सकल चातुर गुन मण्डित।
विगरो जन समुदाय बिना पथ दर्शक पण्डित॥
सत्य धर्म्म के नसत गयो बल, विक्रम साहस।
विद्या, बुद्धि, बिबेक, विचाराचार रह्यो जस॥
नये नये मत चले, नये झगरे नित बाढ़े।
नये नये दुख परे सीस भारत पैं गाढ़े॥
छिन्न भिन्न ह्वै साम्राज्य लघु राजन के कर।
गयो, परस्पर कलह रह्यो बस भारत मैं भर॥