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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३७६

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भारत के धन अन्न और उद्यम व्यापारहिं।
रच्छहु, वृद्धि करहु साँचे उन्नति आधारहिं॥
बरन भेद, मत भेद, न्याय को भेद मिटावहु।
पच्छपात, अन्याय बचे जे तिनहिं निबारहु॥
पूरन मानव आयु लहौ तुम भारत भागनि।
पूरन भारतीन की करत, सकल सुख साधनि॥
उमड़े भारत मैं सुख, सम्पति, धन, विद्या बल।
धर्म्म, सुनीति, सुमति, उछाह, व्यापार ज्ञान भल॥
तेरे सुखद राज की कीरति रहै अटल इत।
धर्म्म राज रघु राम प्रजा हिय मैं जिनि अंकित॥