पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३८३

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उचित जुपै दृग नीरन सों मारगहिं सिचावै।
पूरन प्रेम दिखाय पलक पाँवड़े बिछावैं॥
तासों उत्साहित हिय अतिशय आज हमारो।
करत निवेदन यह लखि शुभ आगमन तिहारो॥
स्वागत स्वागत सरयूपारी विप्र बन्धु वर।
अतिशय पूजन जोग अतिथि हितकर दुर्लभ तर॥
गौतम, गर्ग, शांडिल्यादि ऋषि वंशज सब।
सोये बहु दिन के जागे बाँधत परिकर अब॥
हीन दशा निज जाति देखि अतिशय अकुलाने।
उठे करन उद्धार हेतु जो आज सयाने॥
तौ निश्चय अब होत जानि उन्नति को हम कहँ।
लखि समान उत्साह सकल बन्धुन के मन महँ॥
यदपि तुम्हारे अन्य बन्धु कबहीं के जागे।
निज उन्नति पथ पथिक बने पहुँचे बढ़ि आगे॥
तऊ यथा बुध जन भाष्यों सिद्धान्त वाक्य यह।
नहि बिलम्ब कबहूँ तिहि जो जन काज कियो यह॥
तासो विलम लगावहु जनि वै अति उत्साहित।
सत्य प्रतिज्ञा करि सब सुजन होय एकतृत॥
हरहु दीनता अरु हीनता जाति अपने की।
करहु अविद्या अनुत्साह सम्पति सपने की॥
तजि मिथ्या अभिमान परस्पर मिलहु मिलावहु।
बैरि फूट अरु कलह काढ़ि के दूरि बहावहु॥
बेगि उठावहु गिरी जाति अपनी कह बेगहिं।
जाकी दशा निहारि दया आवत अब केहि नहिं॥
तब निश्चय उद्धार जाति अपने की जानहुँ।
तासों या सीखहिं अब मन्त्र सजीवन मानहुँ॥
देवि त्रिवेणी तुम्हैं सिद्धि अति बेगहि दैहैं।
माधव मधुसूदन करि कृपा विनोद बढ़ेहैं॥