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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३८४

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—३५७—

अक्षयबट अक्षय उद्योग बनैहैं तुम्हरे।
तुव बिघ्नन कह खैहैं बैठि बासुकी सबरे॥
सोमेश्वर सिंचन करि दया सुधा सों नित प्रति।
उन्नति अंकुर को नित करैं तुम्हारे उन्नति॥
देत यहै आसीस प्रेमघन सहित प्रेमघन।
सफल मनोरथ करैं ईश तुम कहँ हे सज्जन॥[]

(३)
शुभ सम्मिलन[]


स्वागत! स्वागत! बन्धुवर! तुम हित सौ सौ बार।
भारत जननि सुपूत जे मति-गुन गन आगार॥
जिन सुदेस उद्धार को अति अपार ब्रत लीन।
जिन तिहि पूरन हित अवसि बहु साँचे स्रम कीन॥
बिघन अनेकन पाय पुनि पाएँ पछारे नाहिं।
औरहु नव उत्साह सों रहे निरत हित माहिं॥
पै अबको उत्साह कछु औरै हमैं लखात।
जाके हित सुभ सम्मिलन सह यह सिच्छा बात॥
सुभ सम्मिलन को साँचहूँ अतिसय सुअवसर यह अहै।
सब सुजन सोचि बिचारि करतब करिय तब रस ज्यों रहै॥
बचि हानि सों निज देस लाभ विसेस लहि दुख दल दहै।
उत्साह नवल प्रवाह यह जैसो उठ्यो प्रति दिन बहै॥
यदपि हरख संग प्रति बरख चारहुँ दिसि तैं धाय।
सम्मिलन जातीय हित मिलहु परस्पर आय॥
बहु दिन तुम सब निरन्तर सुसमाहित स्रम कीन।
राजनीति कृषि काज लगि सोचत युक्ति नवीन॥


  1. सरयूपारीण सभा के अवसर पर विरचित।
  2. ब्राह्मणों के ऊपर।