पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—३५८—

लहि सुराज बरखा सलिल सुतन्त्रता झर पाय।
जीत्यो मेघा मेदिनी विद्या हल भल भाय॥
बयो बीज उद्योग जो सरद संजोग बिचारि।
सुभ आसा अंकुर उग्यो जासु हरित दुति धारि॥
तिहि चरिवे हित दुष्ट पसु धाये बार अनेक।
रच्छ्यो रच्छक बृद्ध तुव जा कहँ सहित बिवेक॥
सींच्यो जिहि मिलि आप स्रम जल दिन वत्सर बीस।
जिहि प्रभाय दल अवलि भरि साख परति बहु दीस॥
जे बिबिध साखा सभा, समिति, समाज आज विराजहीं।
प्रस्ताव पत्रावलि सुधार प्रचार मय छवि छाजहीं॥
नाना प्रयोजन बरन, जाति, जमाति उन्नति काजहीं।
जाके प्रभाव प्रसार लखि लखि विलखि वैरी लाजहीं॥
भई वृद्धि बँचि घोर तर कुटिल नीति हेमन्त।
कियो कृपा करि कोउ बिधि जौं बिधि वाको अन्त॥
प्रविस्यो साहस को सिसिर फैलावत आतङ्क।
कम्पित करि निज दर्प सों विद्देशी जन रंक॥
बिरति बिदेसी वस्तु सन-सीत भीत अधिकाय।
सुभ सुदेस अनुराग मय कुसुम समूह सुहाय॥
कियो प्रफुल्लित सस्य सों सिल्प सुगन्ध बढ़ाय।
स्रम-जीवी मधु मच्छिकन को जनु प्रान बँचाय॥
आनन्द को अति यह विषय संसय कछू जामैं नहीं।
पर भयंकर हेमन्त सों यह सिसिर सोचहु सहजहीं॥
कृषि हानि प्रद उत्पात याको धरम जाहि कहीं कहीं।
तुम लखहु ताके समन हित करियै जतन अति बेगहीं॥
निज प्रमाद पाला परयो जहँ तहँ धीरज धारि।
छमा वारि सींचिय तुरत आगत दोष निवारि॥
राज कोप के उपल सों सावधान अति होय।
रहियैं रञ्चक बीच जो सकत नास करि सोय॥