सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—३६०—

दुष्काल रोग अनीति नासै सद्धर्म उन्नति पावई।
भट, विबुध, अन्न, सुरत्न भारत भूमि नित उपजावई॥

(४)

सुहृद लाजपतराय स्वागतपत्र


स्वागत स्वागत सुहृदवर, अहो लाजपतराय।
देखि तुम्हें मिरजापुरी, प्रजा देति हरखाय।
स्वागत भारतभूषन तुहिं सत्कर्म वीरवर।
स्वागत भू पंजाब तापहर अमल सुधाधर॥
हिन्दू जाति अभिमान, वैश्य कुल करन उजागर।
दयाधर्म तत्पर दुख देश दशा लखि कातर॥
श्रीपति अनुकम्पा पाय प्रिय अहो लाजपति राय नित।
भारत की रच्छहु लाजपति बिना विन्ध लहि यश अमित॥
धन्य तिहारो देश जाति उद्धार करन हित।
स्वारथ लेस विहीन सत्य ब्रत दिय में अंकित॥
विविध होनि त्यों दुसह दुखनि सहि जो नहिं किंचित
होत संकुचित जात अधिक अधिकात और नित।
तेरे विद्वेषी जाहि लखि लज्जित मन में होय कै।
कहि देत विवश ह्वै धन्य तू! तेरे काजहि जोय कै।
विविध दीन देसन को रच्छक रह्यो जो भारत।
निज दुष्कर्म प्रमाप दीन वनि सो है आरत।
तहँ के दीनबन्धु जन के दुख जो तुम टारत॥
दीन बन्धु हरि करि तेरे सब दुख दल गारत॥
यश सुख समृद्धि आरोग्य दै चिरजीवौ तो कहँकरैं।
प्रगटाय कोटि सुत तोहिसम भारत की आरति हरे॥
भारत के लाखन दुखी देत जो तुँहि असीस।
प्रेम सहित नित प्रेमघन सत्य करै सोइ ईस॥