सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

आनन्द अरुणोदय

भारतेन्दु युग में खड़ी बोली की यह परम उत्कृष्ट रचना है। कवि अब अँग्रेजी राज्याधिकारियों के झूठे आश्वासनों को समझ गया और उनके धोखेबाजियों कि प्रति शंखनाद प्रतिध्वनित किया। इस कविता में स्वदेश प्रेम की अविरल धारा प्रवाहित हुई है। वन्देमातरम् की ध्वनि पर आर्य सन्तानों को जाग्रत होने के लिए कवि कह पड़ता है:—

"बृटिश राज्य स्वातन्त्र्‌य समय व्यर्थ न बैठ बिताओ।" कवि ईश्वर से प्रार्थना करता है:—

"आर्य्य जाति का हो अभ्युदय भूमि भारत पर॥"

सं॰ १९६३