पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३९३

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शिल्प कला सम्यक् प्रकार उन्नतकर शीघ्र प्रचारो।
निज व्यापार अपार प्रसार करो करो जग यश विस्तारो॥

आवश्यक समाज संशोधन करो न देर लगाओ।
हुए नवीन सभ्य औरों से अपने को न हँसाओ॥
अपनी जाति बस्तु अपने आचार देश भाषा से।
रक्खो प्रीति रीति निज धर्म वेष पर अति ममता से॥
राज, अर्थ, औ धर्म्म नीति तीनों को संग मिलाओ।
दृढ़ उद्योग निरालस होकर करो सकल फल पाओ॥
सब से प्रथम धर्म्म संचय का यत्न करो ऐ प्यारे।
सकल मनोरथ होते सफल धर्म के एक सहारे॥
सत्य सनातन धर्म्म ध्वजा हो निश्छल गगन उड़ाओ।
श्रौतस्मार्त कर्म्म अनुशासन के दुन्दुभी बजाओ॥
फूँको शंख अनन्य भक्ति हरि ज्ञान प्रदीप जलाते।
जगत प्रशंसित आर्य्यवंश जय जय की धूम मचाते॥
आर्य्य शास्त्र उपदेश करत रव विजय घण्ट को भारी।
विश्व बिजय करलो प्रयास बिन बैरी बृन्द बिदारी॥
मुख्य सत्य बल सञ्चय करके मन में दृढ़ कर जानो।
जहाँ सत्य जय तहाँ नियम यह निश्चय करके मानो॥
रक्खो ईश कृपा की आशा शरण उसी के जाओ।
मङ्गल होगा सदा तुम्हारा सहज सिद्धि सब पाओ॥
यह सुनकर सब सम्प्रदाय के उठे आर्य्य हर्षाते।
जय सच्चिदानन्द, जय भारत उच्च स्वर चिल्लाते॥
पहुँचे प्रयाग जाकर तीर्थराज है जो कहलाता।
मज्जन करके सलिल त्रिवेणी जो अघ ओघ नसाता॥
सन्ध्या बन्दनादि कर बैठे तट पर मिलि सब भाई।
होकर अतिशय उत्साहित मन मण्डप रुचिर बनाई॥
बिखरी बिबिध सनातन धर्म्मी सम्प्रदाय की एकी।
महाशक्ति सम्मिलित संगठन अर्थ सुजान बिवेकी॥