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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४०१

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बीरन की हुँकार कहँ, दीनन की आसीस।
बन्ध बेद निर्घोष कहँ शुचि सुनात अवसीस॥
जहँ संगीत समुद्र सुर उमड़्यो रहत हमेस।
जो उछाह, आनन्द, गुन गन धन पूरित देह॥
सो सब अगले गुनन सो साँचहुँ सूनो आज।
ताहि निरखि कब मन हरखि साकिही हे युवराज॥
सबै बिदेसी बस्तु नर गति रति रीति लखात।
भारतीयता कुछ न अब भारत में दरसात॥
मनुज भारती देखि कोउ सकत नहीं पहिचान।
मुसुल्मान, हिन्दू किधौं, कै हैं ये क्रिस्तान॥
पढ़ि विद्या परदेश की बुद्धि बिदेशी पाय।
चाल चलन परदेश की गई इन्हें अति भाय॥
ठटे विदेशी ठाट सब, बनयो देस बिदेस।
सपनेहूँ जिनमैं न कहुँ भारतीयता लेस॥
यदपि तिहारो राज इत सुभ सिच्छा को द्वार।
खोल्यो देन प्रजान हित विद्या बिबिध प्रकार॥
पेट काज पै ये सिखे बस अँगरेजी एक।
अँगरेजी मति गति लई तजि संस्कृत विवेक॥
बोलि सकत हिन्दी नहीं अब मिलि हिन्दू लोग।
अँगरेजी भाखत करत अँगरेज़ी उपभोग॥
अँगरेज़ी बाहन, बसन, वेष, रीति और नीति।
अँगरेज रुचि, गृह, सकल वस्तु देस विपरीत॥
हिन्दुस्तानी नाम सुनि अब ये सकुचि लजात।
भारतीय सब वस्तु ही सों ये हाय घिनात॥
देस नगर बानक बनो सब अँगरेजी चाले।
हाटन में देखहु भरो बस अँगरेजी माल॥
तासों भारत मैं कहा भारतीयता सेस।
जो इत, सो सब आप नित है देखत निज देस॥