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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४०२

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पै अँगरेजी राज संग सबं अँगरेज़ी साज।
वृद्धि देखि तुव हरख को हेतु एक युवराज॥
परम कठिनता इक परी है याहू के माहिं।
अँगरेजी गुन गन्ध नहि प्रविसी इन हिय माहिं॥
ऊपर सो भारत सकल पलटि रूप प्राचीन।
मनहुँ विलायत को बनो बच्चा एक नवीन॥
पै नहिं वाकी प्रजा सम इन्हैं मिल्यो अधिकार।
जासों विविध प्रकार को इनमैं बढ़ो विकार॥
पिता मही तुव दै चुकी बचन देन हित तासु।
दुर्भागनि पायो न इन अब लौं लाये आसु॥
पैहैं पिता प्रसाद तुव जब वह ये युवराज।
सजिहैं भारत पर तबहिं यह अँगरेजी साज॥
जौ आये भारत लखनं तुम करि इतो प्रयास।
तौ विशेष फल की नहीं सम्भव पूरनि आस॥
अरु साँची निज प्रजन की दशा देखिबे काज।
जौ आये सहि कष्ट तुम इतो इतै युवराज॥
तौ निरखहु निज नैन सों अन्तर दशा सुजान।
नहिं ऊपर की चमक लखि भूलौ कै सुनि कान॥
यों कृत कारज होहुगे निश्चय हे युवराज।
सहजहि समुझि सुधारि हौ भारत को शुभ साज॥
कीरति निज निजवंश निज राज थापिहौ आप।
भारत भूमी पर अटल उज्ज्वल बृटिश प्रताप॥
यदपि चाल सब भारती पलटि भये छबि छीन।
तो हूँ इनमैं बचि रह्यो इक गुन अति प्राचीन॥
राजभक्ति इन मैं रही जैसी अकथ अनूप।
वैसीही तुम आजहूँ पैहौ पूरब रूप॥
भारतपति सुत पत्नि सग भारत निरखन काज।
आयो सुनि भारत प्रजा को हिय हरखित आज॥