पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

हरिगीती


पै आज इत लखियत अनोखी बात यह अचरज मई।
प्रचरत पुरानी फेरिहूँ सो होय परिपाटी नई॥
निज राज सुनि आगमन स्वागत साज साजत मन दई।
पूरब समानहिं आर्य्य जाति प्रजा परम प्रमुदित भई॥

दोहा


नगर नगर घर घर हिये नर नर के चहुँ ओर।
भारत में आनंद उदधि उमड़्यो आज अथोर॥
कैसे इनके हरष की सीमा आज लखाय।
भारतीय कैसे सकहिं कृतज्ञता बिसराय॥
सह्यो कई सत बरस जिन दुसह दुखन की पीर।
नहिं रच्छा नहिं न्याय तहँ बसि बहु भये अधीर॥
लहि अँगरेजी राजको ते सुनीति सञ्चार।
समुझे विपति समुद्र सों तरिकै पावत पार॥
महरानी विक्टोरिया पिता मही तुव नाथ।
पाल्यो सुत सम बहु दिवस जिन्हैं दया के साथ॥
जो कुछ उन्नति इत भई परति लखाई आज।
सो सब तिनके राज मैं हे नव भारत राज॥
नृप सप्तम एडवर्ड तुव पिता अधिक अधिकार।
दै तिन कहँ प्रमुदित कियो बनि करुना आगार॥
यों उपकृत तुव वंश सों भारत प्रजा समाज।
जौ तुम पैँ बलि जाय नहिं तौ अचरज महराज॥

हरिगीती


ऐसो नृपति जौ मिलै धरम धुरीन उपकारी महा।
अन्याय पूरित देस को दुख दुसह सों जो भर रहा॥