पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४०९

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वाके निवासी नर जो तापैं प्रान धन वारन चहा।
तौ लखहुँ नेक विचारि यामैं बात अचरज की कहा॥

दोहा


यदपि बिविध सुख ये लहैं या अँगरेजी राज।
पै इनके हिय इक रह्यो दुसह सोच को साज॥
निज नृप दरसन देस में परम असम्भव मानि।
रहि निरास तिहि सों रहे जानि परम निज हानि॥
निज नैनन निज प्रजा की साँची दसा निहारि।
हरि दुख के कारन सकै जो सुख साज सँवारि॥
कबहुँ नहीं ते लखि सके निज परिपालक भूप।
जिन मुख दरसन कै लहैं अति आनन्द अनूप॥
किहि सों निज दुख सुख कहैं को तिनकी सुधि लेय।
सात समुद्र के पार बसि नृप किमि धीरज देय॥
हैँ मानत निज भूप कहँ जे देवता समान।
नृप दरसन अति पुन्यप्रद गुनत आर्य्य सन्तान॥
तासों अब लौं ये रहे या सुख सों अति हीन।
जाके बिन सब सखहु लहि रहे निपट बन दीन॥
उभय बार युवराज के दरसन सों मन साध।
कछुक पुजायो इन मगन है सुख सिन्धु अगाध॥
यही एक दिन होहिंगे भारत के भूपाल।
आरत दसा निवारिहैं तब ह्वै अवसि कृपाल॥
यों भावी आनन्द सों उत्साहित ये होय।
कियो सुभग स्वागत सदा बहु सुख साज संजोय॥
जाहि आप स्वयमेव प्रभु! आय इतै लखि लीन।
साँचे मन स्वीकार करि निज सम्मति अस दीन॥
"सहानुभूति विशेष संग भारत सासन जोग।"
श्री मुख बच सो मन्त्र सम सुमिरत नित हम लोग।