ब्याह बरातहुँ मैं न आज वह कहूं देखियत।
पलटि गयो वह समय हाय सब साजहिं बदलत॥१४१॥
आज तिनहिं के पुत्र भतीजे हम सब इत उत।
घूमत फिरत अकेले वेष बनाये अद्भत॥१४२॥
तन अँगरेजी सूट, बूट पग, ऐनक नैनन।
जेब घड़ी कर छड़ी लिये जनु अस्त्रन सस्त्रन॥१४३॥
चहै लेय जो पकरि सीस धरि बोझ ढोवावै।
नहिं प्रतिकार ततच्छन कछु जो मान बचावै॥१४४॥
भई रहनि अरु सहनि सबै ही आज अनोखी।
ब्रह्मज्ञानी सबै बने साधू संतोखी॥ १४५॥
कचहरी दीवान
(१)
गयो कचहरी को वह गृह कहँ जहँ मुनसीगन।
लिखत पढ़त अरु करत हिसाब किताब दिये मन॥१४६॥
तिन सबको प्रधान कायथ इक बैठ्यो मोटो।
सेत केस कारो रंग कछु डीलहु को छोटो॥१४७॥
रूखे मुख पर रामानुजी तिलक त्रिशूल सम।
दिये ललाट, लगाये चस्मा, घुरकत हरदम॥१४८॥
पाग मिरजई पहिनि, टेकि मसनद परजन पर।
करत कुटिल जब दीठ, लगत वे कांपन थर थर॥१४९॥
बाकी लेत चुकाय छनहिं में मालगुजारी।
कहलावत दीवान दया की बानि बिसारी॥१५०॥
वाके सन्मुख सबै देखि रुख वचन उचारत।
जाय पीठ पीछे पै मन के भाव उधारत॥१५१॥
कहत लोग यह चित्रगुप्त को वंश नहीं है।
साच्छात ही चित्र-गुप्त अवतार नयो है॥१५२॥