पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४२०

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मेचक चिकुर पुंज रजनी के, मध्य मंजु मन भाता है।
रमा रुचिर विधु वदन चाँदनी, मिस मानो मुसकाता है॥
जिसका चारु चकोर चक्रधर, चकित लालची लोचन से।
निहारता हारता सदा मन, रहता है भोलेपन से॥
अथवा गगन सरोवर नील, सलिल पूरित पर फूला है।
सित सहस्र दल अमल कमल, वनकर मन मधुकर भूला है॥
जिसकी केसर सरस कौमदी, जग कमनीय बनाती है।
शुभ सुगन्ध सम्मिलित सुधा, मकरन्द विन्दु बरसाती है॥
वा यह अम्बर उदधि बीच, उतराया क्या मन भाया है।
उज्वल उपल महान खंड, मंडलाकार छवि छाया है॥
तिमिर मत्त मातङ्ग मारकर, सिंह उसी पर बैठा है।
मरीचिमाला सटा छटा, छहराता गर्वित ऐंठा है॥
अथवा क्या आकाश माठ में, मथित हुआ उतराया है।
मंजुल मक्खन पिण्ड स्वच्छ, सब के मन को ललचाया है॥
प्रकृति देवि छबि दर्शक दर्पण, गोल अलौकिक भारी है।
वा यह पूरित प्रभा दिखाता, भाता जगती सारी है॥
रमना रम्य व्योम उद्यान बीच, वा विकसित भाया है।
सुन्दर सूर्य्यमुखी कमनीय, कुसुम का यह रंग ल्याया है॥
अथवा आदि अखंड पिण्ड, ब्रह्माण्ड मनोहर दिखलाता।
फिर भी है जगदीश आज, निज माया महिमा प्रगटाता॥
वा यह थाल रजत मन्मथ, महीप का जिला कराया है।
रस शृंगार सार जिसमें भर, जग को सरस बनाया है॥
वा कलधौत कलश पूरित, पीयूष धरा सा भाता है।
वा भारत हृदयेश सुयश, सम्पुट नभ पहुँच सुहाता है॥
अथवा किसी देव शिशु ने, क्या गोली गुड़ी उड़ाई है।
प्रभामई जिसने जगदीठ, खींच कर पास बुलाई है॥
अम्बर मानसरोवर में वा, राजहंस यह चरता है।
तारावली सकल मुक्ता चुग, जिसका पेट न भरता है॥