पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४२१

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वा चतुरानन कुम्भकार का, चलता चक्र सुहाता है।
भब्य भाण्ड प्राणी समूह जो, सदा बनाता जाता है॥
पांचजन्य वा हृषीकेश का, मध्य सुदर्शन सोहा है।
भरा प्रभा वा क्या कमनीय, कौस्तुभ ने मन मोहा है॥
शची देबि सिर सीस फूल सा, कैसा चित्त चुराता है।
आतपत्र वा नृपति पुरन्दर, श्वेत प्रभा प्रगटाता है॥
दीन भारती प्रजा जिन्हे वा, नहि कर्त्तव्य सुझाता है।
दुसह शोक उच्छ्‌वास उनका बन, उड़ा गुबारा जाता है॥
विधुदीपावरण प्रभा पूरित, क्या सोहा सुन्दर है।
टंगा उसी बिवाह सम्बन्धी, मजलिस के क्या अन्दर है॥
उसी समय हूँ हूँ हूँ हूँ धुनि, अरुण शिखा की मैं सुनकर।
लगा सोचने मन ही मन मैं, चौकन्ना हो विशेष तर॥
क्या सचमुच बिवाह का, साज सजा है इस फुलवारी में।
इधर अग्नि क्रीड़ा होती है, क्या दिसि प्राची प्यारी में॥
उठा अंक पर्य्यंक त्याग कर, तुरन्त मैं तब चकराया।
उतर उच्च अट्टालिका के ऊपर से, जब नीचे आया॥
सटे सदन के सहन से सजे ग्रीष्म भवन से मैं होकर।
ज्योंहीं पहुँचा जाकर मिले सरोवर तट सुन्दर थल पर॥
मध्यवर्ति रमणीय रविश पर आसन सुखद बिछा पाया।
बैठ गया मैं जाकर उस पर जो था अति मन को भाया॥
बनी ठनी बाटिका बनी की बनक जहाँ से दिखलाती।
शोभा सरिता उमड़ी लहराती थी मन को नहलाती॥
सोही सूही सुरंग चूनरी पहिन मोनियाँ बेली की।
गोल मुहर की चादर चारु बढ़ाती प्रभा नवेली की॥
कुसुम सावनी की कंचुकी गुलाबी शोभा देती थी।
स्वर्णलता स्वर्णालंकार सजाये मनहर लेती थी॥
था थल कमल अमल प्रफ्फुल आनन अनूप शोभाकर सा।
हंसराज अलकावलि मानो नर्गिस नैन मैन सरसा॥