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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४२५

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खड़काता था चंग कहीं चंडूल लावनी सा गाता।
सुनता था चुपचाप चतुर चातक मयूर सा चकराता॥
गाती थी फिरकी फुदकी कृष्ण औ श्रीरामी मिलकर।
कोरस का रस देती वृक्ष पुञ्ज रंगस्थल में सुन्दर॥
कहीं मंडली भांड़ों की अपना ही रंग जमाये थी।
रूपक सह संगीत हास रस के सब साज सजाये थी॥
ढोटा धौरा सुढंग नाचता बाँकी ठुमरी गाता था।
सनद सनद की लिए कद्र की मानो कद्र कराता था॥
भाव रस भरे करता लोचन चंचल चारु घुमा करके।
सुन्दर ग्रीव सिकोड़ मरोड़ सिकुड़ इठलाता मन हरके॥
देते थे करताल साथ सुर भरते थे पीछे जिसके।
नील ग्रीव चटक पिण्डुक चर दारुविदारक जो तिसके॥
बने विदूषक तीतर धनुष बटेर छम कर खूसट थे।
बक बत्तक महोख टिट्टिभ उल्लूक हँसाते चटपट थे॥
इतने ही में काले सूट पहिनने वालों का आया।
काकावलि का स्वाँग कि जिसने महा हास रस बरसाया॥
कोलाहल बहु बढ़ा कि जिसका कुछ भी वारा पार नहीं।
हँसते हँसते लोट पोट हो गये रहे जो लोग जहीं॥
इधर देखिये तो महफिल में नई छटा छहराती थी।
जैसे कोई सुन्दरी युवती होकर चित्त चुराती थी॥
था मुजरा हो चुका कभी कल्यान, कान्हरा, बिहाग का।
परज कलिंगरा भैरव माल कौस आदिक सब सुराग का॥
जश्न भैरवी का आरम्भ हुआ था अब सब साज सजा।
ठाट बाट से देता था अपने जो इन्द्र समाज लजा॥
जिससे सब संगीत अंग इक रंग सुहाते थे भाते।
रंग स्थल में मङ्गलमय आनन्द सिन्धु से लहराते॥
रंग बिरंगी चारु चमत्कृत रुचिर तितिलियों की अवली।
सजित विचित्र सुन्दरी परी पंक्ति सी थी नाचती भली॥