पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४२४

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सुर सिंगार सिंगार सुरों का करके मंजु बजाता था।
हरित हरेवा हरता सा मन मानो मोद मचाता था॥
तेवर कोमल आरोही इमरोही सुर सिखलाता था।
गिन गिन अगिन मोहता मन मानो इसराज बजाता था॥
जल तरंग था बया बजाता दहियर रहा सितार बजा।
मानो द्रुत गति बोल विलम्पत मीड़ ज़मज़मो सहित सजा॥
पवई हारमोनियम बुलबुल रबाब का रस लाता था।
सब का गुरु बन भृङ्गराज बैठा बाँसुरी बजाता था॥
पियरोला मृदंग की परन सुनाता रस बरसाता था।
संग २ मुहचंग बजाता फिद्दा रंग जमाता था॥
मुदित भुजंगी मंजु मजीरे की टुनकार सुनाती थी।
सब का मेल मिलाती सब को एक रंग में ल्याती थी॥
टप्पा मैना गाती क्या रस भरी गिटगिरी लेती थी।
शोरी का दम भरती सब को मनो मुग्ध कर देती थी॥
तोड़ नाच नाच कर मुनित्र्या गति की गति दिखलाती थी।
हाव भाव जिस्के लखकर मन में मेनका लजाती थी॥
शुक था साधुवाद करता मन हरा हुआ सा हरा हुआ।
कराहता था कपोत प्रेमी राग राग से भरा हुआ॥
हो उन्मत्त घूमता लक्का था वक्षस्थल ऊँचा कर।
तान तीर से विंध कर लोटन लोट रहा था भूमी पर॥
उत्सव समारोह संगीत सहित सब साजों से सोहा।
सबी थलों पर जिसे देखते ही जाता था मन मोहा॥
कहीं कलावंत कोकिल खयाल पंचम सुर में गाता था।
तान तरह तरह की लेता सदारंग बन जाता था॥
कहीं लता मन्दिर सुन्दर में बैठा बीन बजाता था।
लाल सारदा नारद की सी रंगत गत में लाता था॥
किसी कुंज में मंजु तराना तूती परी सुनाती थी।
छिपी अलग अलबेली बन मानो बायला बजाती थी।