पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४२७

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नहीं समझ में आता है फिर लगी कालिमा कैसी है।
जिसके जी में आता जो वह बकता बातें वैसी है॥
कोई कहता है मयंक जब निकला सागर मन्थन से।
लगी कीच जो थी छूटी वह नहीं अभी उसके तन से॥
कोई कहता है "शशांक, शश को ले गोद खिलाता है।
सुन्दर जिसका रूप दिखाता, अतिशय मन को भाता है॥
कोई कहता जुता हुआ मृग, विधु रथ में शोभाशाली।
की है दिखलाती परछाहीं, पड़ी हुई उसमें काली॥
कोई कहता क्रुद्धित होकर, मुनि ने मारा मृगछाला।
पड़ा चन्द्रमा बदन आज लौं, चिन्ह उसी का यह काला॥
कोई कहता है मुनि पत्नी से, कलंक है उसे लगा।
मान प्रिया सम्बन्ध वस्तु, यह हिय में उसको समझ ठगा॥
नव अंग्रेजी के विद्वान् आर्य्य सन्तान बताते हैं।
हम पढ़ कर विज्ञान जान कर सत्य तुम्हें समझाते हैं॥
दूरवीक्षण यंत्र देखने का नक्षत्र बड़ा कोई।
लभ्य यहाँ यदि होता जा सकती सब शंकायें खोई॥
चन्द्र लोक प्रत्यक्ष दिखा देते हम तुमको मित्र अभी।
सुनी सुनाई बातों को तुम सत्य न सकते मान कभी॥
चन्द्र लोक भी इस पृथ्वी के समान ही है हुआ बना।
पृथ्वी सागर बन पर्वत प्राणी समूह से बसा घना॥
वह पर्वत उसका है, जो दिखलाता काला काला है।
उसी यंत्र से कई बार यह मेरा देखा भाला है॥
बहुतेरी अनपढ़ी भारती बुढ़ियायें भोली भाली।
भरी मोद में गोद खिलाती, बालक बहु बधने वाली॥
देखो भय्या उई जोन्हैया, कैसी अच्छी लगती है।
करती अपना काम और को, सीख सिखाती जाती है॥
है कहता कोई अपनी, पृथ्वी की यह परछाईं है।
अथवा पड़ी राह भय की है, उसके हिय में काई है॥