पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४३

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पूजागृह

जहँ पर पूजा पाठ करत पंडित अनेक मिलि।
कोउ मूरति से अचल बने कोउ झूलत हिलि मिलि॥१६६॥
कोऊ शालिग्राम कोऊ पारथिव बनाये।
कोउ नांगी असि मैं दुर्गा को ध्यान लगाये॥१६७॥
कहूँ धूप को धूम छयो, घृत दीप उजाली।
शंख बजत कहुँ संग सहित घंटा घड़ियाली॥१६८॥
उग्र स्तोत्रन की मधुर ध्वनि परत सुनाई।
कुसुम समूह रहत सुन्दर सुगन्ध बगराई॥१६९॥
कोउ त्रिपुंड कोउ ऊर्ध्व पुंड दीने ललाट पर।
जपमाली में हाथ डारि जप करत ध्यान धर॥१७०॥
जिन सब मैं एक छोटो, मोटो, गौरबरन तन।
जंज पूक गठरी सों बैठ्यो झुको कमर सन॥१७१॥
वृद्ध बाघ सम सबहिं गुरेरत घुरकत सब हिन।
नेकह, करत प्रमाद लखत काह को जबहिन॥१७२॥
घोखत चिन्तत सन्ध्या विद्यारथी निकट जहँ।
हाय दिनन के फेर आज रोवत श्रृगाल तहँ॥१७३॥
जिहि जनानखाने की ड्योढ़ी डगर सुहावनि।
दासी अरु परिचारिकान अवली मन भावनि॥१७४॥
आवति जाति रहति सुन्दर पट भूषण धारे।
भरे मांग सिन्दूर किये लोचन कजरारे॥१७५॥
कहुँ कहारिनी लिये सजल घट लंक लचावति।
निज कुच कुंभन की उपमा दिखराय रिझावति॥१७६॥
लिये बारिनी पत्रावली जात मुसकाती।
संग नाइनिन के जावक लीने इठलाती॥१७७॥
मालिन लीने जात फूल फल भाजी डाली।
तम्बोलिन लै पान दिखावति अधरन लाली।। १७८॥