पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४४

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पैरिन की झनकार करत खनकार चुरी की।
चलत चलावत चितै किसी जनु चोट छुरी की॥१७९॥
जिनके घाय अघाय युवक जन भरत उसासें।
तऊ त्रास बस पहुँच सकत नहिं तिनके पासै॥१८०॥
निज पद के अनुसार करत कोउ हँसी मसखरी।
फागुन में बहुधा होती ये बात रस भरी॥१८१॥
पै बहु जन के मध्य, न "ये काकी" कोउ बोलत।
सुनत जवाब जुवति कानन मैं जनु रस घोलत॥१८२॥
गावन आस पास की भद्र भामिनी जो नित।
आवति तिन्हें न देखत कोउ आँखें उठाय जित॥१८३॥
औरहु प्रजाबृन्द की जे आवें नित नारी।
निम्न कोटि के उच्च नात सब मैं सम जारी॥१८४॥
सम वयस्क माता, माता, भगिनी भगिनी सम।
बहू बेटियाँ निज बहून बेटिन सों नहिं कम॥१८५॥
लहत रहत 'सम्मान' सहित स शव सदा जहँ।
अटल दिल्लगी त्यों पद देवर भौजाइन महँ॥१८६॥
मिलि प्रनाम आसीस सरिस पद के अनुसारहिं।
हँसी ठिठोली हूँ सो जहँ प्रिय जन सत्कारहिं॥१८७॥
होत स्वभावहिं हँस मुख जहँ के नर-नारी नित।
भावत जिनके सरस चोज़, चोंचले चुहल चित॥१८८॥
तऊ न सकत कोऊ करि मर्यादा उल्लंघन।
होत बिनोद बिलास प्रेममय शुद्धभाव सन॥१८९॥
नेकहुँ पाप लेस भावत आवत आफत सिर।
होय महाजन, के लघु पै नहिं तासु कुसल फिर॥१९०॥
सीसंह कटिजैबे मैं नहिं जन जानत अचरज।
पनहिन सों सिर गंजा होबे में न परत कज॥१९१॥