पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४४२

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चमकि चमकि चंचला चोरि चित, दिसि दिसि दुति दरसाई रे॥
करत सोर चहुँ ओर मोर गन, बन बन बोल सुहाई रे॥
बद्रीनारायन प्यारे की अजहुँ न कछु सुध पाई रे॥३४॥

पूर्व्वी


बिन देखे प्रीतम प्यारे नयनवां न मानैं—हो राम॥टेक॥
समझाये समुझत कछु नाहीं रे—बरबस ही हठ ठानेैं॥
बद्रीनाथ लाजकुल कनिहरे—ये जुल्मी नहिं मानैं॥
मन बरबस बस कर लीनो बालम तोरे नयनाँ रे॥
बद्रीनाथ सुरत ना भूलत, हूलत बाँके नयनाँ रे॥३५॥
सैंय्यां जाने न दूँगी बनज परदेसवाँ॥
बारी उमिर जोबन मतवारे यह मन माहिं अनेसवाँ।
बद्रीनारायन बरसन में कोऊ बिधि मिलत सनेसवाँ॥३६॥

राग गौरी


चितवत ही चुराये चला जात॥टेक॥
व्याकुलता निशदिन रहे मन मन पीर पिरावत,
लगी कटारी प्रेम की नहिं अब धीर धिरात।
बद्रीनाथ बिना लखे रे तुअ छवि ललचात।
पहिले प्रीत लगाय के अब काहे कतरात॥३७॥

सेजरिया रे आवत काहे न यार॥टेक॥
बीतत जात दिवस आवत नहिं, नाहक करत अवार।
क्यों बैठाय अवधि नौका पर अब कस कसत कनार॥
प्रेम पयोनिधि, मैं गहि बहियां बोरत कत मझधार।
बदरीनारायन छतियाँ लगि कै करि जा तू प्यार॥३८॥

कटरिया आँखिन की उर लागी॥टेक॥
बिन देखे सुभ दीपति हिय मैं लागत है बिरहागी॥