पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—४१७—

मोर मुकुट सुखमा अपार, उर ऊपर राजत सुमन हार,
बांके दृग लखि मन लियो हमार।
बद्रीनारायन जू निहार, तन मन धन वार्यौ सौ सौ बार,
बिनवत कर जोरे ठाढ़े द्वार॥४४॥

मृदु मुसुकाई—जुग दृगन नचाई,
सुकन्हाई मन लियो लियो॥टेक॥
मुख चन्द अमन्द प्रभा दिखलाई, हिय बिच प्रेम की बेलि लगाई,
नटवर नट नटि मन लियो है चुराई॥
बद्रीनारायन करि लँगराई, मन लै तन बिरह अगिन भड़काई
नहिं धरत धीर जिय गयो बौराई॥४५॥

सखि तान तान भौंहन कमान मनमोहन मार्यौ नैन बान॥टेक॥
उर उठत पीर जिय ह्वै अधीर, भयी विवस छुट्‌यौ सब खान पान।
बद्रीनारायन सुन आली ब्याली जुल्फन डस गई है प्रान॥४६॥

छलिया छल छल चित छीनो रे॥टेक॥
मुसुक्याय धाय मों पास आय निज छबि दिखाय बस कीनो रे।
बद्रीनारायन गाय गाय बिलमाय हाय मन लीनो रे॥४७॥

मन मोह्यो मीठी बोलनि मैं, अधराधर पल्लव खोलनि मैं॥टेक॥
कविवर बद्रीनारायन जू जुगल कपोलनि डोलनि मैं॥४८॥

प्यारी छवि प्यारी प्यारी है॥टेक॥
भोली सुरत रसीले नैना मनहु मनोज कटारी है॥
लटकत लट काली घुघराली, जनु जुग ब्याली कारी है।
मधुर मन मुसुक्यात दसन दुति, उज्वल, ज्योति उजियारी है॥४९॥