पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४४७

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अति अतर्क्य अति अकथ कहै कोउ
कहा, कौन विधि तुम विश्वम्भर।
नेति नेति कहि वेदहु थाके
जाहि सराहि न लहे पार पर॥

एकहि सो अनेक होबे हित
निज माया प्रेरत विधि सुन्दर।
रचत असंख्य सृष्टि आपुहि मैं
बिनहि काम सम सकल चराचर॥

यदपि सुभावहि निराकार
साकार होत तौहूँ रहि अच्छर।
विरचत बनि विरञ्चि, वनिकै हरि
पालत, जग नासत ह्वै कै हर॥

आप भानु ह्वै जगत प्रकासत,
आप इन्द्र ह्वै लावत हौ झर।
आपहि जल आपहि तरङ्ग
आपहि झष गहत आप बनि धीवर॥

आपहि क्रीडा करत आप सो
आपहि डरत आपने ही डर।
आपहि मन मोहत अपनो बनि
ससि चकोर, अलि कुसुम, नारि नर॥

आप बसत जढ जीव बीच सब
आपहि या विशाल जग के घर।
आप जनावै तब जन जानै
यद्यपि लीला जगत उजागर॥