पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—४३०—

चक्रवाक सारस मराल मिलि, ताल तरल जल भाई।
पंकज पुँज पराग मधुर मधु मधुकर मनहि लुभाई॥
चन्द अमन्द दुचन्द लसत नभ चित्त चकोर चुराई।
श्री बद्री नारायन कविवर विरचि सुराग सुनाई॥९१॥

हे हे भारत भाई! मिलि सब सुभग बधाई गाओ॥टेक॥
बृटिश राज बसि तुम सब अब लौं जौ अनेक दुख पाओ,
जिन दीने वे अब प्रतिनिधि नहि तासो ताहि भुलाओ॥
अब तो गवरमेन्ट लिबरल है तासो मन हरखाओ,

तापै वाइसरा भागन सो,
लार्ड रिपन सो आओ।
शुद्ध न्याय दिनकर सों दिन कर,
उन्नति पथहि लखाओ॥
शीत अनीत भीत हरि तम निज,
पक्षपात बिनसाओ॥
दुखित दुष्ट अधिकारी तस्कर,
प्रजा प्रमोद बढ़ाओ॥
दुःख कुमुद संकुचित कियो त्यों,
सुख सरोज बिकसाओ॥
बिती निसा दुर्भाग्य भरत सों,
भाग्य भोर प्रगटाओ॥
उठो उठो भारत भुव वासी,
बेग न बिलम लगाओ।
मूरखता की नींद छाड़ि कर,
आलस दूर बहाओ॥
पहिचानहु निज स्वत्व बेग चित,
हित अनहित अब लाओ।"