पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४५९

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लाजत घन अचरज देखि नवल,
नहि टुटत धार निसि निसि दिन दिन।
बिन पिया प्रेमघन जीवन धन,
बर्षा कियो नैननि बरसि बरसि॥९८॥

अजब इन अँखियन की लग जान॥टेक॥
परत दृगन पर दृग ऐंचत जिय, डोर पतङ्ग समान।
बिन कारन बिन जतन होत ज्यों, चुम्बक लोह मिलान॥
सुखद जुराफा के सँयोग सम, बिछुरत निकसत प्रान।
श्री बद्रीनारायन कछु अब हमैं परी पहचान॥९९॥

नहीं वाकी सुभ भूलत हाय, कीजै कौन उपाय॥टेक॥
गोरी सुरत मोहनी मूरत चन्द अमन्द लजाय।
दिखाय लियो मन मेरो मन्द मधुर मुसुक्याय॥
नासा मोरि कलित जुग भृकुटी सारंग बंक बनाय।
गई बेधि हिय बिसिख अचानक लोचन चपल चलाय॥
उभरे उरज ललित अंचल मैं नेकहि नेक छिपाय।
युग भुज मूल सरस सोभा दरसायो करन उठाय॥
नाभी अमल दिखावन हित, लचकीली लंक लचाय।
श्री बद्रीनारायन जू को बरबस लियो लुभाय॥१०॥

लगन लागी यह कैसी हाय, रहि रहि जिय घबराय॥टेक॥
मुख मयंक अमि अधर मधुर रस, हित चकोर चित चाय।
फस्यो फन्द जंजाल जाल अलकावलि में उल्झाय॥
रूप सरस सौरभ आसा मन मत्त मलिन्द लुभाय।
बिध्यो विरह कांटा कसकत सिसकत रोवत अकुलाय॥
नेम प्रेम मृग तृष्णा लौं मन मिथ्या मोह मढ़ाय।
सुख की सेज नहीं सोवत जो याके हाथ बिकाय॥