पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—४३४—

यदपि लाभ को लेस न यामें, कोऊ रीत लखाय।
श्री बद्रीनारायन यह मन, तौ हूँ नहिँ सकुचाय॥१०१॥

निपट ये निडर हमारे नैन॥टेक॥
नित नूतन मुख चन्द चाह मैं होत चकोर सचैन।
मान हानि, कुल कानि, लोक की लाज लेस भय हैन॥
यार गली मैं ढूँढ़त डोलत मानत ना दिन रैन।
श्री बद्रीनारायन काहू की नहिं मानत बैन॥१०२॥

बुरी यह प्रीत निगोड़ी होत॥टेक॥
दिल दरपन मैं दुरत न दीपक लौं दरसात उदोत।
बद्रीनाथ सरिस प्रेमिन की प्रगट प्रेम की जोत॥१०३॥

मरम मन की अखियाँ कहि देत॥टेक॥
दरसत दरपन दुरो यथा रंग होत स्याम वा स्वेत।
ज्यों अंकुर कहि देत बीज गति यदपि छिप्यो बिच खेत॥
चित चोरी की करन चलाई ये चट पट करत सचेत।
श्री बद्रीनारायन से बुध जन, लखि कै सब तड़ि लेत॥१०४॥

पड़ै उन बिन कल हमैं नहीं॥टेक॥
कुतुबनुमा सम जात उतै चित, रहत यार जितहीं।
सुनि कलरव कल किकिनि, नूपुर, बाजत जाय वहीं॥
श्रवन सुनत वाही मृदु बैनन बोलै कोऊ कहीं।
श्री बद्रीनारायन लखियत ताको चहै कहीं॥१०५॥

दिना चाँदनी चार-रहे नाहीं वे दिन अब यार॥टेक॥
नहिं वह रूप, नहीं वह रंगत नहिं सुखमा संचार।
जानी जोश जवानी ना जापै जिय जात हजार।