पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

आगन्तुकन सेवकन हित सीधन जहँ तौलत।
थकित रहत मोदी अबो सो सीध न बोलत॥२०४॥
मनुजन की को कहै मूंसहूं तहँ न दिखाते।
तिनको बिलन भुजंग बसे इत उत चकराते॥२०५॥

मकतबखाना

यही ठौर पर हुतो हाय वह मकतब-खाना।
पढ़न पारसी विद्या शिशुगन हेतु ठिकाना॥२०६॥
पढ़त रहे बचपन में हम जहँ निज भाइन संग।
अजहुँ आय सुधि जाकी पुनि मन रंगत सोई रंग॥२०७॥
रहे मोलबी साहेब जहँ के अतिसय सज्जन।
बूढ़े सत्तर बत्सर के पै तऊ पुष्ट तन॥२०८॥
गोरे चिट्टे नाटे मोटे बुधि बिद्या निधि।
बहुदर्शी बहुतै जानत नीकी सिच्छन बिधि॥२०९॥
पाजामा, कुरता, टोपी पहिने तसबी कर।
लिये दिये सुरमा नैनन रूमाल कन्ध धर॥२१०॥
प्रातः काल नमाज वजीफा पढिकै चट पट।
करत नास्ता इक रोटी की पुनि उठिकै झट॥२११॥
पढ़त कुरान शरीफ अजब मुख बिकृत बनावत।
जिहि लखि हम सब की न हँसी रुकि सकत बचावत॥२१२॥
कोउ किताब की ओट हँसत, कोउ बन्द किये मुख।
अट्टहास करि कोउ भाजत फेरे तिन सों रुख॥२१३॥
कोउ आमुखता पढ़त जोर सों सोर मचावत।
कोउ बिहँसत, औरनै हँसाबन हित मटकावत॥२१४॥
आये तालिब इलम जानि सब मीयां जी तब।
आवत पाठ छाँड़ि कीने कुछ रूसन सो ढब॥२१५॥
करत सलाम अदब' सों तब हम सब' ठाढ़े द्वै।
बैठत तब जब "जीते रहों" कहत बैठत वै॥२१६॥