पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४७

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प्रथम नसीहत करत, अदब की बात बतावत।
हम सबकी बेअदबी की कहि बात लजावत॥२१७॥
फेरि दोआ पढ़ि, आमुखता सुनि, सबक पढ़ावें।
जे नहिं आये बालक तिन कहं पकरि मगावै॥२१८॥
उन कहँ अरु जो याद किये नहिं अपने पाठहिं।
सजा करै तिनकी बहु बिधि डपटहिं अरु डाटहिं॥२१९॥
सटकारत सुटकुनी, जबै मोलबी रिसाने।
मारखाय रोवत तिहि लखि सब सहमि सकाने॥२२०॥
हम सब निजि निज पाठ पढ़त बहु सावधान है।
झूलि झूलि अरु जोर जोर अति कोलाहल के॥२२१॥
सुनि रोदन चिधार दयावश बूढ़ो पंडित।
उठि कै आवत तहाँ सकल संद्गुन गन मंडित॥२२२॥
कहत "मौलबी जी" यह करत कवन तुम अनरथ।
सत सिच्छा को जानत नहिं तुम अहो सुगम पथ॥२२३॥
दया प्यार प्रगटाय प्रथम विद्या को परिचय।
विद्यारथिन करावहु यहि बिधि सत सिच्छा दय॥२२४॥
ज्यों ज्यों विद्या स्वाद शक्ति ये पावत जैहैं।
त्यों त्यों श्रम करि आपुहिं पढ़ि पंडित कै जैहैं॥२२५॥
हम सब ऐसहिं निज शिष्यन कहँ विवुध बनावत।
भूलेहूँ कबहूँ नहिं कोउ पैं हाथ चलावत॥२२६॥
कठिन संस्कृत भाषा जाको वार पार नहि।
ताके विद्या सागर होते यही प्रकारहिं ॥२२७॥
तुम सब मुर्गी करि हलाल नित, निज कठोर हिय।
बिनय दया बिन हतहु हाय विद्यार्थीन जिय॥२२८॥
हँसत मोलवी, वै रोवत बालकहिं चुपावत।
अरु कछु सिच्छा देत कथान पुरान सुनावत॥२२९॥
कबहुँ मोलवी अरु पंडित बैठे मोढ़न पर।
प्रेम बतकही करहिं मिले लखि परहिं मनोहर॥२३०॥