पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४६४

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चरणामृत तजि के अब तो सब सोडावटर पियई,
पान खान की रीत नहीं पीयहिं सिगार सबई॥
लखी जो कल वह आज नहीं ऋतु सम यह बदल गई,
लखहु विचारि प्रेमघन तौ जग गति यह दई दई॥११०॥

रंग बदलत नित नये नये॥टेक॥
कह ऋतु शिशिर हिमन्त आय पतझार उजार कये,
फिर बनि बिमल बसन्त बाग बन फूलन फल फलये॥
शरद चन्द दुति कभौं गिरीषम तापन तन तपये,
कबहूँ बर्षा की बहार घुमड़त घन सघन छये॥
कबहुँ जवानी रहत युवारी जन पै सिंगार सजये,
पै आवत बृद्धापन के तेहि दिसि न जात चितये॥
कबहु बिपति के जाल परे जन रोवत दीन भये,
हरखित हँसत प्रेमघन पुनितिन सुख सूरज उदये॥१११॥

परच


एरी सखि लखि छबि सुन्दर श्याम की॥टेक॥
नटवर बेष केश सिर सुखमा, मोर मुकुट अभिराम की॥
कटि तट पट फहरानि छटा, छहरानि हिये बन दाम की॥
बद्रीनाथ (हिये बिच हूल)हीन दुति होती छन ३ जवि काम की॥११२॥

हूलत हिय गति अँखीयान की, भूलत नहिं सुधि प्रिय प्रान की॥
चन्द अमन्द कपोल लोल पर हलकनि कुंडल कानकी॥
बद्रीनाथ चितै चित चोरत, लट पट चाल सुजान की॥११३॥

जमुनातट लटकन टूटा रे॥टेक॥
सुन्दर निपट कसे कटितट पर चटपट मन धन लूटा रे॥
बद्रीनाथ बिलोकि बनक बन आज लाज डर छूटा रे॥११४॥