पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४६५

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परच की ठुमरी


निराली चाल तेरी आली-अनोखी बान आन उर मान
करत नित पाँय परत पिय न सुनत॥टेक॥
श्री बद्री नारायन सो भौंह चढ़ाय-अनत चलत॥११५॥

सखी री का कहूँ को जानै री-सखी री निश दिन चैन परतनहिं
उन बिन, जिय कसकत-हिय धरकत-कल न परत॥टेक॥
बद्रीनाथ लंगर अति नागर,
डगर चलत बतियाँ कहत मनहिं हरत॥११६॥
मेरो तुमहीं चोर चित लीनो लीनो छैल॥टेक॥
श्री बद्रीनारायन बोली बोलत नाहक करत ठिठोली,
गर लग कर दरकाई चोली,
बस माफ़ करो चलो छोड़ो गैल॥११७॥

चलो हट जाओ बस छोड़ो डगर॥ गाली दूँगी बस बोले अगर॥टेक॥
श्री बदरीनारायन दिलवर जिय जानि अनोखे आप लंगर,
लगिजात गात नहिं कछु डरात,
सकुचात न लखि नर नगर बगर॥११८॥

उन धर बहियाँ मोरी झटकी॥टेक॥
गाली गावत रँग बरसावत लहि मग बंसी बटकी।
बदरीनाथ तनिक नहिं बिसरत वा नागर नटकी॥११९॥

कान्हरा


ये जग किसने पहचाना है—
जो तू मान मेरा कहना तो देख,
टुक सोच समझ दिल में प्यारे,
न्यारे रहना झगड़े से तो,
मेरा बस यही सिखाना है॥टेक॥
दुनिया सराय के भीतर,
अनगिन्त मुसाफिर का मेला,

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