पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४७०

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घोर घन प्रेम प्रेम
उभय लोक सोक हरहु,
सुर सरिता नाभिनी।१३०॥

विष्णु भगवान


जय साकार ब्रह्म नारायन,
सुरपति पति जग के रखवारे।
कमलाबदन कमल अलि मंजुल,
मन मानस के हंस हमारे।
मीन रूप धरि वेद उधारयो
कच्छप होय धरनिपुनि धारे।
बामन है, वलि छल्यो, परम धरि—
अधरम रत छत्रिन संहारे।

ह्वै बाराह छिति उद्धारयो,
नर हरि ह्वै हरिनाकुसहि पछारे।
रावन हन्यो राम है जग में,
धर्म नीति आचार प्रचारे।
बनि गोपाल अलौकिक लीला,
करि मोह्यो जग के जन सारे।
ह्वै वुध निन्दा कियो वेद की,
जीव दया धर्महि विस्तारे।

कर करवाल कराल धारि कलि
अन्तकल्कि ह्वै आतुर मारे।
गरवित म्लेच्छ समूह समूलहि।
नासहु धर्म्म थापि अघटारे।