पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४६९

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संग सदा भंजन त्रय
ताप, त्रिपथ गामिनी।

हरि पद हर सीस बसी,
जग जग के भाग खसी।
भूमि भक्ति भगीरथ
विलोकत सुर स्वामिनी।

शीतल सुचि स्वच्छ सलिल
सुधा स्वाद सरस, अखिल,
मुद मंगल मूल मयी।
सकल सुकाम धामिनी।

हरित पुलिन सेत धार।
मिलि छवि छहरत अपार।
मनहु घन स्याम बीच,
दमकत दुति दामिनी।

परसि महा पपिन तन,
पाप रासि तुव जल कन।
तरनि किरन सरिस तिमिर,
नासत जनु जामिनी!!

प्रफुलित नव कञ्ज हँसत,
गुञ्जत अलि पुञ्ज लसत;
निदरत छवि मज्जत सुख,
जनु सुर कुल कामिनी॥

देव मनुज नारी नर,
न्याय तोहि बन्दत वर,
पूजा सुमनावलि लहि,
सोभा अभिरामिनी।