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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४७५

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शिव


जय शिव! जय महादेव शंकर! त्रिपुरारी॥
आशुतोष, दीनबन्धु, करुनाकर, छमा सिन्धु;
पशुपति! निज भक्तन के नासन भय भारी॥
जटाजूट बीच गंङ्ग, लहरत तरलित तरंग;
भाल अमल चन्द्र जोति छहरत छबि न्यारी॥
निवसत कैलास शैल, ओढ़े गज चर्म चेल;
अङ्ग अङ्ग व्याल, कण्ठ काल कूट धारी॥
पीये नित भंग रंग, गोरी गज बदन संग;
दीजे घन प्रेम भक्ति निज पद सुखकारी॥१३९॥

भवानी


जय जय जग जगत जननि,
चण्ड मुण्ड महिष हननि,
आदि जोति जागति
जय देवि विन्ध्यवासिनी॥
जयति महा माया, जय-
जयति ईस जाया, जय-
काली श्री सारदा,
अनेक रूप रासिनी॥
सेवत सुर सकल चरन,
युगल जासु जलज वरन,
सरद चन्द निन्दत वर-
बदन छबि सुहासिनी॥
पालन सिरजन संहार,
करत तुही वार वार,
अखिल लोक स्वामिनि
घट घट प्रभा प्रभासिनी॥