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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४७८

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जेहि बिधि जो जाके हित भाख्यो उतनो ही बस वैसे।
बरसावत बतियन को रस ज्यों वे बरसावहु कैसे॥
भरी प्रेम घनश्याम प्रेमघन रटत राधिका ऐसे॥१४५॥

ऊधो बात कहो कछु नीकी।
सुन्दर श्याम मदन मन मोहन माधव प्यारे पी की॥
सानि सानि जनि ज्ञान मिलावहु भाखो उनके जी की।
हम प्रेमिन तजि प्रेम नेम नहिं भावत बतियाँ फीकी॥
बरसाओ रस-प्रेम प्रेमघन और लगें सब फीकी॥१४६॥

विसारो बातें बीर बिरानी।
कैसो हूँ वह कोऊ कहूँ को तू केहि सोच समानी॥
जात कहूँ आयो कितहूँ तै का करिहै तू जानी।
कुलवारी बारिन की रहनि न जानै निपट अयानी॥
लगत कलंक संक झूठे हू लेखि लखनि सुनि बानी।
निपट नकारो प्रेम प्रेमघन जामैं सरबस हानी॥१४७॥

जय जय अभिराम चरित राम रूप धारी।
जय असरन सरन हरन भक्ति भीर भारी॥
मुनि मख राखे सुबाहु आदिक भट मारी।
ताड़का सँहारि सहज गौतम तिया तारी॥
तोरि धनुष ब्याहि जनक राज की दुलारी।
सिर धरि गुरु सासन तजि राज बन विहारी॥
खरदूषण त्रिशिर कुंभकरन खल संहारी।
राछस बहु कोटिन संग लंकपति पछारी॥
सिय संग कियो प्रजा प्रेमघन सुखारी॥१४८॥

जय रघुनन्दन राम-चरित अभिराम काम पर भव भय हारी।
केवल सदगुन पुँज मनुज तनु धरि पवित्र लीला विस्तारी॥