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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४७९

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दरसायो आदरस नृपति जग जन हित सिच्छा सुभग प्रचारी।
परजन मनरंजन हित लागे स्वारथ सकल आप तजि भारी॥
जय जय रघुकुल कुमुद कलाधर राम रूप हरि आरति हारी।
दया बारि बरसाय प्रेमघन आप अमित भू-ताप निवारी॥
जय आनंद कंद जग बंदन बासदेव बृज विपिन बिहारी।
जय जय व्यापक ब्रह्म सनातन तन धरि नर लीला विस्तारी॥
निराकार साकार सगुन निरगुन मय रूप अनूप सँवारी।
जय जोगेश अशेष शक्तिधर परमातम् परतच्छ मुरारी॥
कियो अमानुस काज अनेकन कालिय मंथन गिरवर धारी।
रहि असंग भोगे सुख भोगनि जग मन उपजावत भ्रम भारी॥
वेद सार विज्ञान खानि गीता उपदेस्यो समर मँझारी।
विश्वरूप अरजुनहिं दिखायो संशय सहित मोह तम टारी॥
छिपे आप क्रूरन सों करि क्रीड़ा वहु विधि मनमोहन वारी।
पूरन कियो आस भक्तन की जथा जोग दुख दोख विसारी॥
सबहिं दसा में राखिये किरपा निज सुभाव अच्युत अविकारी।
नासे असुर खलनिदल दलि मलि कियो साधु जन सहज सुखारी॥
बिधि भ्रम गर्व इन्द्र हरि दावानल अँचये खल कंस पछारी।
मान सुदामा प्रन भीषम संग राखे लाज पांडु-सुत नारी॥१४९॥

जय गोबिन्द गोकुलेश मंथन अहि काली।
जय जय नँद नन्दन जगबन्दन बनमाली॥
निन्दत सत चंद बदन लाजत लखि जाहि मदन।
नवल नील नीरद तन शोभा शुभ शाली॥
बृन्दाबन सघन कुंज बिकसित नव सुमन पुंज।
कालिन्दी पुलिन बसत गुँजत भ्रमराली॥
सरस तान गान संग बाजत बीना मृदंग॥
निरतत मिलि युवती जन मन मोहन वाली॥
लीला नित बहु प्रकार करत हरत भव बिकार।
बरसहु निज प्रेम प्रेमघन मन प्रन पाली॥१५०॥