सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—४५९—

चाटहु चटनी जो रुचि राचै चाखहु सभुग अँचार।
जबहिन तुम नमकीन छोड़िहौ लै रस सब रस वार॥
पूरी गरम कचौरी भाजी खस्ता भरि भरि थार।
लेहु न मिरचा चीखि आपने रुचि सँग साग सुधार॥
मोहन भोग कियो खुरमा हित गुप चुप करि प्यार।
तुम लगि निज कुल भावती मिठाई न परस्यो यहि बार॥
बहु बिधि गोरस मधुर मुरब्बे मेवन की भरमार।
लेहु स्वाद सब सहित प्रेमघन के सारे सरदार॥१६७॥

समधिन
सिन्ध भैरवी


सुनिये समधिन सुमखि सयानी।
आवहु दौरि देहु दरसन जनि प्यारी फिरहु लुकानी॥
फैली सुभग सरस कीरति तुव, सुन सबहिन सुखदानी।
आये हम सब करै निवेदन, यहै जोरि जुग पानी॥
जनि संकोच करहु अब सुन्दरि, लेहु सुयश मनमानी।
दया वारि बरसाय प्रेमघन, बनहु बिनोद बढ़ानी॥
सम समधी तुव सदन द्वार यह आनि भीड़ मड़रानी।
पुरवहु काम सबन के बेगहि उर उदारता आनी॥१६८॥