पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४९

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दाढ़ी झारत कोऊ कोऊ जुलफीन सँवारत।
कोऊ चन्दन घसत बिरचि कोउ तिलक लगावत॥२४४॥
किते करत कसरत कितने जुरि लरत अखारे।
पीठ लगन को करि विवाद झगरत हठ धारे॥२४५॥
करत डंड कोउ बैठक कोउ मुगदरनि हिलावत।
लेजिम झनकारत कोउ भारी नाल उठावत॥२४६॥
बाँह करत जुरि कोऊ ताल मारत कोउ ऐंठे।
कहुँ कोउ पंजे करत वीर आसन सों बैठे॥२४७॥
कहूँ जरठ जन करत पाठ दुर्गा को दै मन।
आगे निज असि धरे किये श्रद्धा सों अरचन॥२४८॥
कोऊ सुरज-पुरान, कोऊ रामायन, गीता।
पाठ करत कोउ हनुमत-कवच, चटकि जनु चीता॥२४९॥
बाल भोग कोउ खाय पियत चरनामृत हरषत।
कोऊ करि जलपान मुरेठा ठटि २ बान्हत॥२५०॥
पहिरि मिरजई पाग पिछौरी अस्त्र धरि।
चलत कचहरी ओर सबै ऐंठे गरूर भरि॥२५१॥
प्रभु अभिवादन करि बहु जात काज आदेशित।
बैठत किते सभा की शोभा करि परिवर्धित॥२५२॥

सिपाहियों की रहनि

जहँ मध्यान समय दीने चौकन महँ चरबन।
चाभि २ पीयत सिखरन पुनि लै प्रसन्न मन॥२५३॥
खात लगाय पान सुरती कोउ पीवत हुक्का।
विविध बतकही करत किते करि धक्का मुक्का॥२५४॥
मांजत कोउ तरवार, कोऊ लै पोछत म्यानहिँ।
कोऊ ढाल गैंडे की फुलिया मलि चमकावहिँ॥२५५॥
कोउ धोवत बन्दूक, बन्द बाँधत खुसियाली।
कोउ माजत बरछीन सांग उर बेधन वाली॥२५६॥