कौउ कटार माजत, कोउ जुगल तमंचे साजत।
कोउ ढालत गोली, कोउ बुंदवन बैठि बनावत॥२५७॥
कोउ बर्रोही खूनि खानि के बरत पलीते।
कोउ सुखाय काटत, मुट्ठा बाधत निज रीते॥२५८॥
भरत तोसदानन कोउ, सिंगरा भरत बरूदहि।
कोउ रंजक झुरवावहिँ खोली झारहिं पोछहिं॥२५९॥
सिंगरा साजि परतले पेटी कोऊ साफ़ करि।
टांगत निज निज खूटिन पर निज हथियारन धरि॥२६०॥
गुलटा कोऊ बनावहिं कोउ गुलेल सुधारहिँ।
ढोल कसहिँ कोउ बैठि, चिकारे कोऊ मिलावहिँ॥२६१॥
ठीक साज कै मिले युवक रामायन गावत।
झाँझ मजीरा डंडताल करताल बजावत॥२६२॥
प्रेम भरे त्यों वृद्ध भक्त कोउ अर्थ करें तहँ।
जब वे गहैं बिराम, राम रस यों बरसैं जहँ॥२६३॥
कहूँ वृद्ध कोउ बीर युद्ध की कथा पुरानी।
अपनी करनी सहित युवन सों कहहिं बखानी॥२६४॥
असि, गोली, बरछीन छाप दिखराबैं निज तन।
लखि कै सांचे साटिक-फिटिक सराहैं सब जन॥२६५॥
वृद्ध बीर इक रह्यो सुभाव सरल तिन माहीं।
जाढिग हम सब बालक गन मिलि नित प्रति जाहीं॥२६६॥
बीर कहानी जो कहि हम सब के मन मोहै।
भारी भारी घाव जासु तन मैं बहु सोहै ॥२६७॥
पूछयो हम इक दिवस "कहा ये तुमरे तन पर"।
हँसि बोल्यो निर्दन्त “सबै ये गहने सुन्दर"॥२६८॥
जे गहने तुम पहिनत ये बालक नारिन हित।
अहैं बने नहिं पुरषन पैं ये सजत कदाचित॥२६९॥
पुरषन की शोभा हथियारन ही सों होती।
कै तिनके घायन सों पहिर न हीरा मोती॥२७०॥
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५०
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