पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५०८

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चलत छाँड़ि कुल गैल बने बिगरैल नहीं सकुचात।
छके प्रेममद मस्त प्रेमघन तकत यार दिन रात॥८॥

रंडियों*[१] की लय


बांके नैनों ने रसीले! तोरे जदुआ डाला रे।
मुख मयंक पर मण्डल मानौ कान सजीले वाला।
मोर मुकुट सिर अधर मुरलिया गर विलसत बनमाला।
प्रेम प्रेमघन बरसावत कित जात नन्द के लाला ॥९॥

दूसरी


तोरी गोरी रे सूरतिया प्यारी प्यारी लागै रे॥
मन्द मन्द मुसुकानि लखे उर पीर काम की जागै।
बरसावत रस मनहुँ प्रेमघन बरबस मन अनुरागै॥१०॥

तीसरी


मारी कैसी तू ने जनियाँ! वाँके नैनों की कटार॥
पलक म्यान सों बाहर कर कर दीन करेजे पार।
ब्याकुल करत प्रेमघन मन हक नाहक हाय! हमार॥११॥

बनारसी लय


तोहसे यार मिलै के खातिर सौ सौ तार लगाईला॥
गंगा रोज नहाईला, मन्दिर में जाईला।
कथा पुरान सुनीला, माला बैठि हिलाईला हो॥
नेम धरम औ तीरथ बरत करत थकि जाईला।
पूजा के के देवतन से कर जोरि मनाईला हो॥
महजिद में जाईला ठाढ़ होय चिल्लाईला।
गिरजाघर घुसि कै लीला लखि लखि बिलखाईला हो॥
नई समाजन की बक बक सुनि सुनि घबराईला।
पिया प्रेमघन मन तजि तोहके कतहुँ न पाईला हो॥१२॥


  1. *नर्तकी वेश्या वा घुघुरूबन्द पतुरिया।