पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५१५

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फूला फला बिटप गरुआया, लतिकाओं से लिपटाया।
जंगल मंगल साज सजाया, उत्सव साधन सब पाया।
जुगनू ने जो जोति जगाया, दीपक ने समूह दरसाया।
झिल्लीगन झनकार मचाया, सुर सारंगी सरसाया।
घिरि घन मधुर मृदंग बजाया, तिरवट दादुर ने गाया।
नाच मयूरों ने दिखलाया, हर्षित चातक चिल्लाया।
सखियों ने मिलि मोद मनाया, दिन कजली का नियराया।
पिया प्रेमघन चित ललचाया, झूला कभी न झुलवाया॥३३॥

अद्धा
तृतीय विभेद
स्थानिक ग्राम्य भाषा
विकृत लय


पिय परदेसवाँ छाये रे—मोरी सुधिया बिसराय॥
सूनी सेजिया साँपिन रे—मोरा जियरा डँसि डँसि जाय।
सब सजि साज पिया कै रे—ननदी छतियाँ ले लगाय॥
रसिक प्रेमघन को किन रे—सौतिन लीनो बिलमाय॥३४॥

दूसरी


आए सखी सवनवां रे—सैय्यां छाये परदेस॥
अस बेदरदी बालम रे—नाहीं पठवै सन्देस॥
उमड़े अबतौ जोबना रे—नाहीं बालापन को लेस॥
हेरबै पिया प्रेमघन रे—धरि जोगिनियां के भेस?॥३५॥

नवीन संशोधन


सैयाँ अजहूँ नाहीं आय! जियरा रहि रहि के घबराय॥
घिर घन भरे नीर नगिचाय। बरसैं, पीर अधिक अधिकाय॥
दुरि दुरि दमकै दामिनि धाय। मोरा जियरा डरपाय॥