पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५३०

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भार उतारन काज भूमि, लखि भरी पाप तैं भारी रामा।
हरि २ लीला ललित करन रुचि रुचिर बिचारी रे हरी॥
असुर सकल अकुलाने, सुरगन बरसत सुमन सुखारी रामा।
हरि २ कहत "जयति जय जय जग मंगलकारी" रे हरी॥
गाय प्रेमघन गुन बिरञ्चि शिव नाचत दै करतारी रामा।
हरि २ मुदित मनहुँ तन मन की सुरत बिसारी रे हरी॥८१॥

गोबर्धन धारण


इन्द्र कोप करि आए, संग में प्रलय मेघ लै धाए रामा।
हरि २ राखो बृज बृजराज! आज भय भारी रे हरी॥
घुमड़ि घोर घन कारे, घिरि २ ज्यों कज्जल गिर भारे रामा।
हरि २ आय रहे जग छाय सघन अँधियारी रे हरी॥
बज्रनाद करि धमकैं, चारहुं ओर चंचला चमकैं रामा।
हरि २ प्रबल पवन धरि झोंकैं झंका झारी रे हरी॥
बरसैं मूसल धारा, जाको कहूँ वार नहिं पारा रामा।
हरि २ जलही जल दरसात भरी छिति सारी रे हरी॥
गो, गोपी, गोपाल, भये बेहाल सबै मिलि टेरैं रामा।
हरि २ नन्द जसोमति मिलि हेरै बनवारी रे हरी॥
अकुलानी राधा रानी, हिय लागि स्याम सों भाखैं रामा।
हरि २! "राखहु ब्रज बूड़त अब हाय मुरारी"! रे हरी॥
दुखित देखि सबही करुनाकर, करुनाकर कर ऊपर रामा।
हरि २ गिरि गोबरधन धर्‌यो धाय गिरधारी रे हरी॥
चकित भये ब्रजबासी, अचरज देखि धन्य धनि भाखैं रामा।
हरि २ बरसैं सुमन सकल सुर अम्बर चारी रे हरी॥
बरसि थके नहिं पर्‌यो बुन्द ब्रज, भाजे तब सिर नाई रामा।
हरि २ समझि प्रेमघन सुरनायक हिय हारी रे हरी॥८॥