पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५२९

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रसिक प्रेमघन प्रेमीजन, चातक बनाय ललचाए रामा।
हरि २ हंसत मनहुं चंचल चपला चमकानी, रे हरी॥७८॥

दूसरी


नन्दलाल गोपाल, कंस के काल, दीन हितकारी रामा।
हरि २ भज मेरे मन, मनमोहन बनवारी रे हरी॥
राधाबर सुन्दर नट नागर, मंगल करन मुरारी रामा।
हरि २ मधुसूदन माधव बृज कुञ्ज बिहारी रे हरी॥
जग जीवन गोबिन्द गुनाकर, केशव अधम उधारी रामा।
हरि २ रसिक राज कर गिरि गोबर्धन धारी रे हरी॥
काली मथन कृष्ण कालिन्दी के तट गोधन चारी रामा।
हरि २ सुखद प्रेमघन सदा हरन भय भारी रे हरी॥७९॥

झूले की कजली


कालिन्दी के कूल कलित कुञ्जनि कदम्ब पै आली रामा।
हरि २ झूलनि की झूलनि क्या प्यारी प्यारी रे हरी॥
चमकि रही चंचला चपल, चहुँ ओर गगन छवि छाई रामा।
हरि २ सघन घटा घन घेरी कारी कारी रे हरी॥
प्यारी झूलैं पिया झुलावैं गावैं सुख सरसावैं रामा।
हरि २ संग वारी सब सखियां बारी बारी रे हरी॥
लचनि लंक की संक लली लहि बंक भौंह करि भाई रा॰।
हरि २ "बस कर झूलन सों मैं हारी हारी" रे हरी॥
बरसत रस मिलि जुगल प्रेमघन हरसत हिय अनुरागें रा॰।
हरि २ टरै न छबि अंखियनि तैं टारी टारी रे हरी॥८०॥

जन्माष्टमी की बधाई


मिट्यो सकल दुख द्वन्द्व, बढ़्यो आनन्द, नन्द घर जाए रामा।
हरि २ अज आनन्द कन्द बृजचन्द मुरारी रे हरी॥