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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५४

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प्रात पंचिमी उठि माता निज शिशुन सजावत।
रचि रचि नागा बिन ब्याहे बालकन बनावत॥३११॥
कन्यनहीं को तो यह है त्योहार मनोहर।
ताहीं सों तो तिनको होत सिंगार अधिक तर॥३१२॥
नये बसन आभूषन सजि डलरी गुड़िया लै।
गावत जिनके संग सुसज्जित सखी समुच्चय॥३१३॥
चलें मराल चाल सों ताल जाय सेरवावें।
बाटें घुघुनी, चना, मिठाई, जब गृह आवै॥३१४॥
झूलैं झूलन फेरि, झुलावै तिन भ्राता गन।
जेवैं जुरि तब पुनि नाना प्रकार के ब्यञ्जन॥३१५॥
तिन रच्छा हित रहैं सिपाही गन जहुँ ओरन।
पहरे पर नियुक्त ते आय लहैं बकसीसन॥३१६॥
भीर होय भोजन के समय उठे सब इक संग।
निपटें कई पंक्ति मैं सहित प्रजा आश्रित गन॥३१७॥
होली ही के सरिस उछाह रहत जामैं इत।
खेल, कूद, कसरत, मनरंजन, साज अपरिमित॥३१८॥
कहुँ झूलन की गीत कहूँ कजरी तिय गावें।
पुरुष कहूँ सावन मलार ललकार सुनावै॥३१९॥
बीतत वर्षा जबहिं विसद रितु सरद सुहावत।
बीर बिनोद बढ़ावन कौतुक लखिबे आवत॥३२०॥
विजयादशमी की तैयारी होन लगत जब।
चहत दिखावन सब जिहि मिस निज निज बल करतब॥३२॥
होत रामलीला को अति विशाल आयोजन।
करत काज आरम्भ अनेकन कारीगरगन॥३२२॥
करत सिकिल सिकलीगर हथियारन के ऊपर।
करत मरम्मत बनवत त्यों म्यानन मियानगर॥३२३॥
बहु बढ़ई लोहार गन निज निज काज सँवारत।
कुन्दा कांटा कील कसत रचि सजत बनावत॥३२४॥