पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
-२७-

बिहँसत शिव इत उत ठठाय सिर जटा बढ़ाये।
निश्चर बानर युद्ध लखत मन मोद मढ़ाये॥३३८॥
बड़े बड़े योधा दुहुँ ओर बने कपि निश्चर।
भिरत परस्पर लरत महा करि बाद परस्पर॥३३९॥
मनहुँ असम्भव अँगरेजी के राज लराई।
जानि लड़ाके लोग युद्ध झूठे में आई॥३४०॥
कसक निकारत मन की निज करतब दिखरावत।
भूले युद्ध नवाबी के पुनि याद करावत॥३४१॥
छूटत गोले और धमाके आतशबाजी।
चिघ्घारत डरपत मतंग बाजी गन भाजी॥३४२॥
दूर दूर सों दर्शक आवत निरखि सराहत।
डेरे साधू सन्त डारि रामायन गावत॥३४३॥
यदपि लखी बहु नगर रामलीला हम भारी।
लगी नहीं पै कोऊ हमैं बाके सम प्यारी॥३४४॥
को जानै याको ममत्व निज वस्तुहि कारन।
कै शिशुपन के देखे जे विनोद मन भावन॥३४५॥

विजया दशमी

विजया दशमी के दिन की तो अकथ कहानी।
उमड़ि परत जब भीड़ चहूँ दिस सों अररानी॥३४६॥
युवति वृन्द कजलित नैनन सिन्दूर दिये सिर।
नवल बसन भूषन साजे उत्साह भरी चिर॥३४७॥
आवति चंचल चखनि नचावत मृगनि लजावति।
बहुतेरी गावति कोकिल कुल मूक बनावति॥३४८॥
बीर विजय दिन वीर भूमि के वीर उछाहित।
अस्त्र शस्त्र बाहन पूजन नव वसन सुसज्जित॥३४९॥
बीर भाव सो भरे चहूँ दिसि सों जन आवत।
जनु रावन बध काज अवध नर दल चल धावत॥३५०॥