पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५६०

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जातीय गीत
स्वदेश दशा
तीसरे प्रकार की सामान्य लय
क्षोभ


है कैसी कजरी यह भाई? भारत अम्बर ऊपर छाई॥
मूरखता आलस, हठ के घन मिलि मिलि कुमति घटा घिरि आई।
बिलखत प्रजा बिलोकत छन छन चिन्ता अंधकार अधिकाई॥
बरसत बारि निरुद्यमता को, दारिद दामिनि दुति दरसाई।
दुख सरिता अति वेग सहित बढ़ि, धीरज बिपुल करार गिराई॥
परवसता तृन छाय लियो, छिति, सुख मारग नहिं परत लखाई।
जरि जवास जातीय प्रेम को, बैर फूट फल भल फैलाई।
छुधा रोग सों पीड़ित नर, दादुर लौं हाहाकार मचाई।
फेरि प्रेमघन गोबरधनधर! दौरि दया करि करहु सहाई॥१४१॥

दूसरी


गारत भयो भलें भारत यह आरत रोय रहो चिल्लाय॥
बल को परम पराक्रम खोयो विद्या गरब नसाय।
मन मलीन धन हीन दीन ह्वै परयो विवस बिलखाय॥
नहिं मनु, व्यास, कणाद, पतञ्जलि गये शास्त्र जे गाय।
गौतम, शंकर हू नाही जे सोचैं कछू उपाय॥
नहिं रघु, राम, कृष्ण, अर्जुन, कृप, भीषम भट समुदाय।
विक्रम, भोज, नन्द नहिं जे भुज बल इहि सके बचाय॥
नहिं रणजीत, शिवाजी, बापा, पृथिवी, पृथिवीराय।
जे कछु वीर धीरता देते निज दिखाय तन घाय॥
गई अजुध्या, मथुरा, काशी, झूँसी दिल्ली ढाय।
सोमनाथ के टुकड़े मक्के गज़नी पहुँचे जाय॥