पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५६१

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नास कियो म्लेच्छन बेपीरन भली भांति तन ताय।
काको मुख लखि धीर धरै यह नाहिँ कछू समुझाय॥
भये यहां के नर अधरमरत दास वृत्ति मन भाय।
कायर, कूर, कुमति, निलज्ज, आलसी, निरुद्यम आय॥
दुर्भागनि निद्रा सों निद्रित दीजै इन्हैं उठाय।
बरसहु दया प्रेमघन अब नारायन होहु सहाय॥१४२॥

तीसरी


जाहिल औ जंगली जानवर कायर कर कुचाली रामा॥
हरि २ हाय! कहावैं भारतवासी काला रे हरी॥
भये सकल नर में पहिले जे सभ्य सूर सुखरासी रामा।
हरि २ सुजन सुजान सराहे बिबुध विशाला रे हरी॥
सब विद्या के बीज बोय जिन सकल नरन सिखलाये रामा।
हरि २ मूरख, परम नीच, ते अब गिनि जाला रे हरी॥
रतनाकर से रतनाकर जहँ धनी कुबेर सरीखे रामा।
हरि २ रहे, भये नर तहँ के अब कंगाला रे हरी॥
जाको सुजस प्रताप रह्यो चहुँ ओर जगत में छाई रामा।
हरि २ ते अब निबल सबै बिधि आज दिखाला रे हरी॥
सोई ससक, सृगाल सरिस, अब सबै सों लहैं निरादर रामा।
हरि २ संकित जग जिनके कर के करवाला रे हरी॥
धर्म्म, ज्ञान, विज्ञान, शिल्प की रही जहाँ अधिकाई रामा।
हरि २ उमड़्यो जहँ आनन्द रहत नित आला रे हरी॥
बिना परस्पर प्रेम प्रेमघन तहँ लखियत सब भाँतिन रामा।
हरि २ सांचे सांचे सुख को सचमुच ठाला रे हरी॥१४३॥

चेतावनी


चेतो हे हे बाभन भाई! सुधि बुधि काहे रहे गँवाय॥
तुमरेई पुरखे मनु, पाणिनि, भृगु, कणांद, मुनिराय।
व्यास, पतञ्जलि, याज्ञवल्क्य, गुरु, गये शास्त्र जे गाय॥