सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—५३९—

जैमिनि कपिल, भरत, पाराशर, धन्वन्तरि, समुदाय।
भये विबुध विज्ञान प्रदर्शक, तुमहिं सीख सिखलाय॥

तपसी भरद्वाज, दुरवासा, सृङ्ग, पुलस्त्यहु आय।
भये भक्त नारद, सुक से भजि, हरि तन अघ विनसाय॥

परसुराम, कृप, द्रोण, वीरवर, निज वीरता दिखाय।
सुक्र, वसिष्ठ, विष्णु, चाणक, सुभ राजनीति प्रगटाय॥
 
वालमीकि, भवभूति, बान, जयदेव, नरायन चाय।
कालिदास आदिक कविवर सत्, कविता गये बनाय॥

ताके वंस जनम लैकै तुम, निज कुल रहे लजाय।
हाय! लोक परलोक सोक सब, जनु पी गये उठाय!!

करम, धरम, आचार, विचारहि, सदाचार घर ढाय।
वेद, सास्त्र, तप, संसकार तजि, बने निशाचर भाय॥

निज करतव्य धरम तजि घूमत, स्वारथ लोलुप धाय।
धक्का खात घरहिं घर मांगत, भीख तऊ मुंह बाय!!

नाना अधम वृत्ति करि लै धन, डकरहु खाय अघाय।
हाय! हाय! नहि लाज लेस हिय, नहिं अपमान समाय!!

देखहु जग सब अरि तुमरे जिय, विहँसत मोद बढ़ाय।
खोदत जड़ तुमरी नित पै मन, तुमरो नहिं मुरझाय॥

वेद विरुद्ध हाय! भारत रह्यो, कुपथन को तम छाय।
पै तुम कहँ नहिं सूझि परत कछु, छिनहुँ न सोचौ भाय!!

बूड़त देस तुमारेहि आलस, अधरम तापनि ताय।
विप्रवंस मिलि सबै प्रेमघन, सोचहु बेगि उपाय॥१४४॥

उत्साह


घिरी घटा सी फौज रूस मनहूस चढ़ी क्या आवै रामा।
हरि २ खेलो कजरी मिलि गोरा औ काला रे हरी॥