पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५६४

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सो तुमरी माता निरदोषी के गर फिरत कटार।
देखत तुम पै तनिक न लाजत जिय मैं हा! धिक्कार॥
नगर नगर गोसाला खोलहु रच्छहु हित निरधार।
बरसहु दया प्रेमघन मिलि सब मानौ कही हमार॥१४९॥

आशीर्वाद


मङ्गल करै ईस भारत को सकल अमङ्गल बेगि बहाय।
आलस निद्रा सों उठि जानें भारतवासी धाय।
एका, सुमति, कला, विद्या, बल, तेज, स्वत्व निज पाय॥
उद्यम पगे, धरमरत, उन्नति देस करैं चित चाय॥
दुःख कलंक धोय देवै फिरि वेही दिन दिखलाय॥
बरसहिं जलद समय पर जल भल सस्य समृद्धि बढ़ाय।
सुखी धेनु पय श्रवहिं, सकैं नहिं कोऊ तिनहिं सताय॥
राजा नीति सहित राजै नित प्रजा हरख अधिकाय।
प्रेम परस्पर बढ़े प्रेमघन हम यह रहे मनाय॥१५०॥

ऋतु की चीजें
मेघ मलार


सखि सजल जलद जुरि आये चातक चित चोरत चूमत
छिति छिति छन छन छन छवि छवि कर विहाल॥टेक॥
केकी कलित कलाप कलोलत, कूल कूल कल कुञ्जनि मैं,
काली कोयल कूर कसाइन कूकि कराह रही कराल॥
गरजत गगन घटा घन की ये दादुर सोर मचावत हैं—
सूनी सेजिया जनु व्याली, वनमाली आली नहिं आये—वर्षा वधिक समान जनाये,
श्रीबदरीनारायन कविवर बिकल करत बिरहीन बाल॥१॥