पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५८

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आवत कातिक की जब रजनि उज्यारी प्यारी।
जुते हिंगाये खेत बनत उज्वल दुतिधारी॥३६५॥
बड़े बड़े खेतन मैं रजनी समय प्रहर्षित।
कढ़त गोल की गोल खेल खेलन झावरि हित॥३६६॥
सौ सौ जन संग सोर करत खेलत भरि हौसन।
अति कोलाहल मचत युद्ध सम दोउ दल बीचन॥३६७॥
भितरी रच्छत किते, बाहरी करत चढ़ाई।
छ्वै भाजनि, गहि पकरन ही मैं होत लराई॥३६८॥
घायल होत कोऊ, कोऊ को कर पग टूटत।
तऊ मचीही रहत महीनन खेल न छूटत॥३६९॥
कहाँ कृकिट, फुटबाल, कहाँ हाकी टग-वारहु।
ऐसो विषद विनोद सकत उपजाय विचारहु॥३७०॥
जामैं होत सजह ही शिक्षा युद्ध चातुरी।
बिन आडम्बर, खरच, सबै सीखत बहादुरी॥३७१॥
हिम ऋतु आवत जबहिं ठौर ठौरहिँ तपता तब।
बरत जुरत इक भाँति कथा बहु कहत सुनत सब॥३७२॥
वृद्ध युवक अरु ऊँच नीच अनुसार मंडली।
गठत तहाँ तस ठाट, बात जित रुचत जो भली॥३७३॥
कहुँ बोलत हुक्का, कहुँ सुरती मलत खात जन।
छींकत सुंघनी सूंघि संधि कोउ बहलावत मन॥३७४॥
कहत कथा बहु भाँति सुनत केतने मन दीने।
कहूँ चिकारा बजत लोग गावत रस भीने॥३७५॥
फागुन के नगिच्यात जात रंग बदलि और ढंग।
सम वयस्क जन जुरत मिलत अरु कढ़त एक संग॥३७६॥
घुटत भंग कहुँ छनत रंग कहुँ बनत कहूँ पर।
चलत पिचुक्का अरु पिचकारी करत तरातर॥३७७॥
कहुँ करही उबलत, सूखत, महजूम बनत कहुँ।
कहूँ अबीर गुलाल कुमकुमा रंग चलत चहुँ॥३७८॥